हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया है जिसने लाखों WhatsApp यूजर्स को चौंका दिया है। कोर्ट ने साफ कहा कि WhatsApp जैसे निजी मैसेजिंग प्लेटफॉर्म का उपयोग करना कोई मौलिक अधिकार नहीं है। यह फैसला एक डॉक्टर की याचिका पर आया था जिसका अकाउंट ब्लॉक हो गया था। कोर्ट ने उन्हें भारत में बने एक देशी ऐप ‘अरट्टई’ के उपयोग की सलाह दी। इस फैसले ने डिजिटल गोपनीयता और निजी प्लेटफॉर्म के अधिकारों पर बहस छेड़ दी है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि निजी कंपनियों के नियमों के खिलाफ संवैधानिक याचिका दायर करना उचित नहीं है। यूजर्स को अपने अकाउंट के ब्लॉक होने पर सिविल कोर्ट या अन्य कानूनी रास्ते अपनाने चाहिए। इस फैसले के बाद सोशल मीडिया और न्यूज प्लेटफॉर्म्स पर भारी चर्चा हो रही है। लोग यह जानना चाहते हैं कि क्या अब उनके डेटा की सुरक्षा खतरे में है।
Supreme Court का फैसला: WhatsApp अब नहीं है अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक टिप्पणी करते हुए कहा कि WhatsApp का उपयोग करना कोई मौलिक अधिकार नहीं है। यह फैसला डॉ. रमन कुंद्रा की याचिका पर आया था जिनका अकाउंट बिना किसी कारण बताए ब्लॉक कर दिया गया था। उनके वकील ने कोर्ट में तर्क दिया कि यह उनके संचार के अधिकार का उल्लंघन है। लेकिन कोर्ट ने पूछा कि क्या WhatsApp एक राज्य है जिसके खिलाफ संवैधानिक याचिका दायर की जा सके।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि WhatsApp एक निजी कंपनी है और उसके नियमों के तहत यूजर्स स्वेच्छा से सहमत होते हैं। इसलिए उनके खिलाफ संवैधानिक अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता। जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा कि ऐसे मामलों में यूजर्स को सिविल कोर्ट या उपभोक्ता फोरम जाना चाहिए। कोर्ट ने याचिकाकर्ता को अपनी याचिका वापस लेने की अनुमति दे दी।
अरट्टई ऐप को बढ़ावा: देशी विकल्प की ओर
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक दिलचस्प सुझाव दिया। जस्टिस संदीप मेहता ने कहा कि यूजर्स भारत में बने अरट्टई ऐप का उपयोग कर सकते हैं। अरट्टई चेन्नई स्थित ज़ोहो कॉर्पोरेशन द्वारा विकसित एक देशी मैसेजिंग ऐप है। इसे “स्पाईवेयर-मुक्त, भारत में बना मैसेंजर” के रूप में प्रचारित किया जाता है। यह ऐप एक-से-एक चैट, ग्रुप चैट, ऑडियो-वीडियो कॉल और स्टोरीज की सुविधा देता है।
अरट्टई को केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सहित कई सरकारी अधिकारियों ने समर्थन दिया है। वे नागरिकों से आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत देशी ऐप्स अपनाने की अपील कर चुके हैं। हाल ही में अरट्टई ने भारत के ऐप स्टोर में WhatsApp को भी पीछे छोड़ दिया था। यह ऐप यूजर डेटा को भारत में ही स्टोर करता है जो डेटा सुरक्षा के लिहाज से एक बड़ा फायदा है।
WhatsApp डेटा शेयरिंग मामला: लंबित याचिका
सुप्रीम कोर्ट में एक अन्य महत्वपूर्ण मामला भी लंबित है। यह मामला कर्मन्य सिंह सारण बनाम भारत संघ का है। इसमें WhatsApp की नीति पर सवाल उठाया गया है जो यूजर डेटा को फेसबुक और अन्य समूह कंपनियों के साथ साझा करने की अनुमति देती है। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह नीति यूजर्स के गोपनीयता के अधिकार का उल्लंघन करती है।
यह मामला 2016 की नीति पर आधारित है जिसमें यूजर्स के फोन नंबर और संपर्क विवरण फेसबुक के साथ साझा किए जाने का प्रावधान था। दिल्ली हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मामला अभी भी चल रहा है। इस मामले में यह भी तर्क दिया गया कि भारतीय यूजर्स के लिए यूरोपीय यूजर्स की तुलना में कम गोपनीयता सुरक्षा प्रदान की जा रही है।
WhatsApp पर नया कानून 2025: तथ्य बनाम अफवाह
विषय | विवरण |
मुख्य घटना | सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज की, कहा WhatsApp का उपयोग मौलिक अधिकार नहीं |
तारीख | 10 अक्टूबर, 2025 |
याचिकाकर्ता | डॉ. रमन कुंद्रा (एक डॉक्टर) |
कोर्ट की टिप्पणी | “अरट्टई ऐप का उपयोग करें” |
कानूनी आधार | निजी प्लेटफॉर्म के खिलाफ संवैधानिक याचिका अनुचित |
वैकल्पिक उपाय | सिविल कोर्ट या उपभोक्ता फोरम में शिकायत |
संबंधित मामला | कर्मन्य सिंह सारण बनाम भारत संघ (लंबित) |
सरकारी भूमिका | सीधी भूमिका नहीं, लेकिन देशी ऐप्स को समर्थन |
महत्वपूर्ण बिंदु: यूजर्स के लिए संदेश
- सुप्रीम कोर्ट ने कोई नया कानून नहीं बनाया है। यह एक न्यायिक टिप्पणी है।
- WhatsApp पर प्रतिबंध या बैन नहीं लगा है। सेवा पूरी तरह से काम कर रही है।
- यूजर्स को अपने अकाउंट ब्लॉक होने पर सीधे सुप्रीम कोर्ट नहीं जाना चाहिए।
- अरट्टई जैसे देशी ऐप्स के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।
- डेटा शेयरिंग के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में एक अलग मामला लंबित है।
- यूजर्स को निजी ऐप्स की नीतियों को ध्यान से पढ़ना चाहिए।
- डिजिटल गोपनीयता के लिए भारत में एक व्यापक डेटा संरक्षण कानून की आवश्यकता है।
निष्कर्ष: डिजिटल अधिकारों की नई समझ
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला डिजिटल युग में नागरिक अधिकारों की सीमाओं को स्पष्ट करता है। यह बताता है कि निजी कंपनियों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं को संवैधानिक अधिकार नहीं माना जा सकता। यह फैसला यूजर्स को उनके डेटा के प्रति सचेत होने के लिए प्रेरित करता है। यह भी संकेत देता है कि भारत को अपने डेटा संरक्षण कानून को तेजी से अंतिम रूप देने की आवश्यकता है।